बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में इतिहास और कल्पना का ऐसा सुंदर समन्वय है कि दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए है।
इसका संबंध संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट से है।
जो कि कथात्मक शैली में लिखी गयी है।
सम्पूर्ण उपन्यास बीस उच्छ्वासों में बाँटा हुआ है।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में बाणभट्ट कालीन सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्तिथि के ऐतिसाहिक तत्वों पर प्रकाश डाला गया है।
इसे हर्षकलीन सभ्यता एवं संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज माना जाता है।
इसमें भारत में तत्कालीन पनप रही प्रवृत्तियों का लेखक ने यथार्थ चित्रण किया है।
लेखक परिचय
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास द्विवेदी जी का पहला उपन्यास है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य जगत के श्रेष्ठ रचनाकार है।
ये एक निबंधकार, निष्पक्ष आलोचक और मानवतावादी उपन्यासकार हैं।
संस्कृति के साथ – साथ इतिहास के पक्ष को उजागर कर के उन्होंने अपने रचनाओं को निखारा है।
उनके उपन्यास इतिहासिक तथ्यों पर आधारित कम परंतु ऐतिहासिक वातावरण एवं देशकाल पर आधारित है ।
पात्र परिचय
बाणभट्ट – प्रधान पात्र तथा बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास का नायक ।
जो कि संस्कृत का कवि है।
उसका चरित्र साहसी, विवेकशील, भावुक और संघर्षशील।
भट्टिनी – प्रमुख नारी पात्र।
देवपुत्र तुवरमिलिन्द की रूपवती कन्या है। जिसका अपहरण हो जाता है।
यह बाणभट्ट से प्रेम करती है।
निपुणिका – एक अस्पृश्य जाती की कन्या है।
जिसका विवाह कान्दविक वैश्य के साथ होता है। यह विवाह के एक वर्ष बाद ही विधवा हो गयी थी।
यह एक कुशल अभिनेत्री भी है, जो बाणभट्ट से प्रेम करती है।
अतिरिक्त पात्र – सुचरिता, अघोर भैरव, राजश्री, कुमार कृष्णवर्धन आदि।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास की समीक्षा
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में सातवीं सदी में लोग कर्मफल और पुनर्जन्म में विश्वास न रखकर भाग्यवाद पर विश्वास करने लगे थे, धर्म का रूप विकृत हो गया था।
जिसमें भ्रष्टाचार और पाखंड बढ़ रहा था। धर्म के साये में अनैतिक कार्य हो रहे थे।
नारी के प्रति लोगों का दृष्टिकोण भोगवादी था। लुटेरों द्वारा अपहरण करके उन्हें राजाओं के अन्तःपुर में बेच दिया जाता था।
नारी के प्रति सम्मान भाव समाप्त हो चुका था।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में नैतिकता पर विशेष बल है।
लेखक ने विवेक और बुद्धि का उपयोग सही-गलत का निर्णय करने के लिए कहा है।
विवेक को उन्होंने लोक, शास्त्र तथा गुरु से भी ऊपर स्थान दिया है।
व्यक्ति को विवेक, करुणा एवं साहस जैसे गुणों को अपने भीतर विकसित करने का ज्ञान देते है।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के काल में सभी कला के रूप अपने शिखर पर थे।
समाज में कवियों और कलाकारों का सम्मान था।
नाट्य, काव्य, संगीत, चित्र एवं मूर्तिकला को लोग मनोविनोद तथा उपयोगितावादी दोनों नज़र से देखते थे।
अभिनय के लिए प्रेक्षागृह बने हुए थे।
राजदरबार में संगीत, नृत्य तथा काव्य का बोलबाला था ।
कलाकार और कवियों को भी विशेष सम्मान प्राप्त था।
बाणभट्ट का नारी के प्रति दृष्टिकोण प्रशंसनीय दिखाया गया है।
भट्टिनी एक प्रभावशाली चरित्र है।
द्विवेदी जी ने बाणभट्ट के चरित्र पर लगे दाग को दूर करने और नारी के सम्मान की रक्षा करने के उद्देश्य से इस उपन्यास की रचना की और यही इसका मूल केंद्र है।
उपन्यास के माध्यम से लेखक नारी के प्रति सम्मान भाव, नारी शक्ति की गरिमा को समझने और केवल वासनापूर्ति के साधन न मानकर उसके प्रति पवित्र एवं उदान्त भाव मन में रखना बताया है।
राष्ट्र जब संकटग्रस्त हो तो परस्पर एकजुट होकर राष्ट्र सेवा में त्याग एवं बलिदान के लिए तत्पर रहना चाहिए।
शिल्पगत परिचय
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में अनेक जगहों पर विवरणात्मक, वर्णात्मक तथा नाटकीय शैली का प्रयोग किया गया है।
जैसा कि बाणभट्ट संस्कृत के कवि थे । अतः इसमें संस्कृतनिष्ठ, काव्यात्मक एवं अलंकृत भाषा का प्रयोग है।
दार्शनिक विवेचन एवं प्रकृति निरूपण में भी भाषा प्रायः संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से युक्त है।
लंबी वाक्य रचना, लंबे पदबंध, अलंकृत भाषा, संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट शब्दावली उपन्यास में व्याप्त है।
इस प्रकार हम अन्तः कह सकते है कि बाणभट्ट की आत्मकथा हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है।
बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है।