जिंदगीनामा उपन्यास जो कि 1979 में प्रकाशित हुआ।
जिंदगीनामा उपन्यास के लिए कृष्णा सोबती जी को वर्ष 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जो कि एक आँचलिक उपन्यास है जिसमें पंजाब में रहने वाले लोगों के जिंदगी का यथार्थ चित्रण है।
मानवीय स्वतंत्रता और रूढ़ि का प्रतिरोध इस उपन्यास की विशेषता है।
उपन्यास में विभाजन पूर्व पंजाब के जनजीवन और संस्कृति का अद्भुत, शांत और सद्भावपूर्ण जीवन को दर्शाया गया है।
उपन्यास के पात्र
शाहनी – प्रमुख नारी पात्र। जो कि एक हवेली की मालकिन है। यह शाहजी की पत्नी है।
शाहजी – गाँव के जमींदार है। शाहनी उनकी दूसरी पत्नी है क्योंकि पहली की मृत्यु हो गयी है।
महरी चाची – जो कि शाहनी के प्रति प्रेम भाव है और उसकी चाह है कि शाहनी माँ बने।
लाली शाह – शाहनी और शाहजी का पुत्र ।
राबयाँ – जो कि लाली शाह की देखभाल करती है। शाहजी के प्रति आकर्षित है।
अतिरिक्त पात्र – शाहजी के छोटे भाई काशीशाह, भाभी बिंद्रायणी, फतेह, शीरी आदि।
लेखिका परिचय
कृष्णा सोबती अविभाजित पंजाब मूल की लेखिका है।
इन्होंने अपने उपन्यास में सामाजिक रूढ़िगत परंपरा, रीति-रिवाज का बेहद मार्मिक चित्रण किया है।
स्त्री की आवाज़ बनने का कार्य उन्होंने किया। उनके स्वतंत्र होने की बात की।
उन्होंने प्रगतिशील विचारों का समर्थन किया। अंधविश्वास का खंडन किया और समाज सुधार की बात की।
जिंदगीनामा उपन्यास की समीक्षा
लेखिका ने पंजाब के डेरा जट्टा गाँव की यादों को दृश्य के माध्य्म से इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है।
जिंदगीनामा उपन्यास अन्य उपन्यासों से भिन्न है।
इसमें न नायक है न खलनायक न ही नायिका केवल लोगों की बातें की गई है।
कथानक धरती से जुड़ा हुआ है।
कथा की मात्रा कम है किंतु दृश्यों का कई क्रम है।
डेरा जट्टा गाँव में बसे हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदाय के जिंदगी को इस उपन्यास में बयां किया गया है।
उपन्यास में कहानी शाहजी के परिवार के आस-पास ही होती दिखाई पड़ती है ।
शाहजी की गाँव में बहुत प्रतिष्ठा है और वे वहाँ के जमींदार है।
शाहनी उनकी दूसरी पत्नी है जो कि एक साफ़ दिल स्त्री है, जिसे संतान होने में दिक्कत हो रही है।
इस उपन्यास में सभी धर्म के लोग एक-दुसरे के साथ मिलजुलकर रहते है एक साथ खुशियों में शामिल होते है।
उपन्यास में प्रेम कथाओं का जिक्र मिलता है, लोहड़ी, ईद, दशहरा, बैशाखी इन सभी का चित्रण उपन्यास में मिलता है।
लेखिका ने अपनी लेखनी से लोगों के जीवन शैली को जीवंत रूप दे दिया है ।
तत्कालीन समाज की कुरीतियों को इंगित किया हैं जैसे लड़के के जन्म की खुशी।
अंधविश्वास को भी दिखाया गया है जिसमें –
बुरी नज़र से बचाने के लिए काले टीका का प्रयोग,
जच्चा के सिरहाने लोहा रखना,
बच्चे के मदरसे जाते वक्त सात घरों से भिक्षा माँग शिक्षा पूरी करना आदि।
जीवन के हर पहलू का यथावत वर्णन किया गया है।
स्त्री को माता के रूप में महत्वपूर्ण माना गया है।
लोगों के मनोरंजन का साधन लोकनृत्य, लोकनाट्य और पर्व-उत्सव दिखाया गया है।
पंजाब के लोगों का प्रेम, लड़ाई, औरतों का सौतिया डाह, प्रतिशोध, हत्या, ज़मीन-ज़ायदाद का सवाल, फौजी जीवन इन सब का सूक्ष्म वर्णन किया गया है।
इसमें पाठक इतना रम जाता है कि उसे प्रतीत होता है जैसे उसे पढ़ नहीं जी रहा हो।
शिल्पगत परिचय
भाषा का सृजनात्मक प्रयोग किया गया है।
जिसके कारण भाषा में एक विलक्षण स्फूर्ति है।
पात्रों के चरित्र-निरूपण के लिए चरित्र-सृष्टि न करके पंजाब के सामाजिक-संस्कृतिक परिवेश के चित्रण द्वारा सृष्टि की गई है।
उपन्यास के माध्यम से लेखिका का उद्देश्य यह है कि पंजाब अँचल के जीवन, रूढ़ियों और अंधविश्वास का खंडन कर प्रगतिशील विचार के साथ समाज सुधार हो।
लेखिका ने बताना चाहा है कि बँटवारा एक ज़मीन के टुकड़े का केवल दो कर देने की बात भर नहीं है बल्कि एक आपसी वैमनस्यता को जन्म देती है।
इस उपन्यास में कृष्णा सोबती जी ने अपनी लेखनी में एक नया प्रयोग किया और पंजाबी लहजे और साहसिक वर्णन का रचनात्मक ढंग से प्रयोग किया।