राग दरबारी उपन्यास का प्रकाशन 1968 में हुआ।
इसके लिए श्रीलाल शुक्ल जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।
इस उपन्यास पर दूरदर्शन – धारावाहिक का भी प्रचालन हुआ।
1947 के बाद उत्तर भारत के गाँव में फैली विसंगतियों का बखान इसमें मिलता है।
यह उपन्यास 35 परिच्छेद में विभाजित है। जिसमें ग्राम्य जीवन की समीक्षा है।
उपन्यास के पात्र
रंगनाथ – उपन्यास का मुख्य पात्र। जो कि इतिहास विषय से स्नातकोत्तर करने के पश्चात पीएच. डी का शोध कार्य कर रहा है।
वैद्य जी – उपन्यास के नायक और केंद्रीय पात्र । व्यवहारकुशल, दोहरे चरित्र, रिश्वतखोरी जैसे गुणों से परिपूर्ण है।
प्रिंसिपल – छंगामल विद्यालय के प्रिंसिपल जो कि चाटुकार, चुगली करने वाला व्यक्ति है।
खन्ना लेक्चरार – इंटरमीडिएट कॉलेज के लेक्चरर है। ईमानदार, विद्रोही और समझौता नहीं करने वाले व्यक्ति हैं।
बद्री पहलवान – वैद्य जी का बड़ा बेटा। उनके नक्शेकदम पर चलने वाला और साथ देने वाला पात्र है।
रुप्पन – वैद्य जी का छोटा बेटा। क्रांतिकारी स्वभाव का युवा वर्ग का प्रतिनिधि है।
लेखक परिचय
श्रीलाल शुक्ल हिंदी के प्रमुख साहित्यकार थे।
वह उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिए प्रसिद्ध थे।
वे संस्कृत, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा के जानकार थे।
इन्हें वर्ष 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
राग दरबारी उपन्यास की समीक्षा
राग दरबारी उपन्यास एक व्यंग्यात्मक उपन्यास है।
स्वतंत्रता उपरांत भारत के ग्रामीण इलाकों तथा अन्य क्षेत्रों में व्याप्त अराजकता का व्यंग्यात्मक चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।
ग्रामीण इलाकों में फैली राजनैतिक यथार्थ को दिखाता हैं और वहाँ की सभ्यता की भी समीक्षा करता है।
इस उपन्यास की कथा भूमि शिवपालगंज है।
कथा की शुरुआत रंगनाथ के शिवपालगंज आने से होती है और समाप्त उसके वहाँ से वापस जाने से होती है।
शिवपालगंज में रंगनाथ के मामा रहते है।
मामा का नाम वैद्य जी के नाम से ही प्रसिद्ध है।
आदर्श और यथार्थ के बीच का द्वंद्व इस उपन्यास में मिलता है।
जब रंगनाथ को किताबों में पढ़ी बातों का धरातल पर कोई भी औचित्य ही नहीं दिखाई पड़ता तब उसे हर संस्था भ्रष्ट लगती है।
वह इस व्यवस्था को ठीक करने की कोशिश करता है।
लोगों को अन्याय के विरुद्ध जागरूक करने का कार्य करता है।
उसके सारे प्रयास असफल होने पर वो हार मानकर गाँव छोड़कर जाने का निर्णय करता है।
कथा में रंगनाथ से लोग कहते हैं ” जाओगे कहाँ हर जगह तो बेईमानी और भ्रष्टाचार व्याप्त है।”
उपन्यास का उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर जगह व्याप्त भ्रष्टाचार से लोगों को अवगत करवाना है।
वैद्य जी के पात्र के द्वारा उनके जैसे भ्रष्टाचारी एवं ढोंगी व्यक्ति की वास्तविकता को दिखाया गया कि ऐसे व्यक्ति हर युग में होते रहेंगे।
वैद्य जी के माध्यम से स्वार्थी, सत्ता लोभी एवं दिखावे के संत का भंडाफोड़ किया हैं।
जो कि प्रत्येक अनिष्ट कार्य में संलिप्त होते थे।
दूसरी ओर वही व्यक्ति प्रेम, अहिंसा, गीता और सत्य के बातों से लोगों को रिझाने का कार्य किया करते है।
राग दरबारी उपन्यास पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें शुरुआत से अंत तक पात्र और कथा व्यंग्य से परिपूर्ण है।
वैद्य जी इतिहास के शिक्षक है जो गेंहू पीसने की चक्की भी चलाते हैं।
पढ़ाते वक्त यदि बिजली आ जाए तो वह क्लास छोड़ गेंहू पीसने चले जाते हैं।
प्रिंसिपल ने दसवीं के छात्रों को इंटर वाले छात्रों के साथ बिठाने के लिए शिक्षक से कहाँ तो शिक्षक की आपत्ति पर प्रिंसिपल का जवाब था कि –
” जिस तरह अपर और लोअर क्लास में यात्री एक ही बस में सफर करते हैं, उसी तरह लड़के भी साथ-साथ पढ़ लेगें।”
राग दरबारी उपन्यास की शिल्पगत विशेषता
आँचलिक संदर्भ में व्यंग्य और प्रतीकात्मक भाषा की तीव्रता इस उपन्यास में प्राप्त होती है।
लखनऊ नगर के ग्रामीण अंचल के शिवपालगंज की बोलचाल की भाषा इसमें परिलक्षित होती है।
सामान्य सरल हिंदी होते हुए भी भाषा में स्थानीय शब्दों की प्रचुरता दिखती है।
हालांकि अँचल का सीधा जिक्र नहीं मिलता पर इसके परिवेश, भाषा के अनुसार ये कुछ अँचल के समतुल्य जान पड़ती है जैसे – उन्नाव, फतेहपुर और रायबरेली
रागदरबारी उपन्यास को लेकर विद्वानों के मत को लेकर अगर कुछ साझा कर सको तो।
जरूर जैसे ही मुझे प्राप्त होगी मैं उसे भी यहाँ जोड़ दूँगा।
जैसे और भी लेख की सामग्री मुझे प्राप्त होती है वैसे ही सभी को उसमें जोड़ता जाता हूँ।
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