स्कन्दगुप्त नाटक 1928 में प्रकाशित हुआ।
नाटक पाँच अंकों में विभाजित है और प्रत्येक अंक दृश्यों में।
स्कन्दगुप्त ने भारत की हूणों से रक्षा की।
इन्होंने पुष्यमित्रों को हराकर विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त की।
पात्र परिचय
स्कन्दगुप्त – युवराज (विक्रमादित्य)। जो कि स्कन्दगुप्त नाटक का नायक है। स्वाभिमानी, नीतिज्ञ, देश-प्रेमी, वीर तथा स्त्रियों का सम्मान करता है।
कुमारगुप्त – मगध का सम्राट और महादंडनायक है।
गोविंदगुप्त – कुमारगुप्त का भाई।
पुरगुप्त – कुमारगुप्त का छोटा भाई।
पर्णदत्त – मगध का महानायक।
चक्रपालित – पर्णदत्त का पुत्र।
बंधुवर्म्मा – मालव का राजा।
भीमवर्म्मा – बंधुवर्म्मा का भाई।
मातृगुप्त – काव्यकर्त्ता कालिदास।
प्रपंचबुद्धि – बौद्ध कापालिक।
शर्वनाग – अन्तर्वेद का विषयपति।
धातुसेन(कुमारदास) – कुमारदास के प्रछन्न रूप में सिंहल का राजकुमार।
भटार्क – नवीन महाबलाधिकृत।
पृथ्वीसेन – मंत्री कुमारामात्य।
खिंगिल – हूण आक्रमणकारी।
मृद्गल – विदूषक।
प्रख्यातकीर्ति – लंकाराज – कुल का श्रमण, महाबोधि – विहार का स्थविर (महाप्रतिहार, महादंडनायक, नंदीग्राम का दंडनायक, प्रहरी, सैनिक इत्यादि।)
देवकी – कुमारगुप्त की बड़ी रानी – स्कन्दगुप्त की माता।
अनंतदेवी – कुमारगुप्त की छोटी रानी – पुरगुप्त की माता।
जयमाला – बंधुवर्म्मा की स्त्री – मालव की रानी।
देवसेना – बंधुवर्म्मा की बहिन जो गरीबों और असहायों की सेवा में अपना जीवन अर्पण कर देती है।
विजया – मालव के धनकुबेर की कन्या।
कमला – भटार्क की जननी।
रामा – शर्वनाग की स्त्री।
मालिनी – मातृगुप्त की प्रणयिनी (सखी, दासी, इत्यादि)
स्कन्दगुप्त नाटक की समीक्षा
स्कन्दगुप्त नाटक राष्ट्रीय उन्नति की संवेदना को जागृत करता है।
व्यक्तिगत स्तर पर स्कन्दगुप्त अपने मनः स्थिति से जूझता है, जहाँ वो एक सरल मनुष्य समान दिखाई देता है।
इस नाटक में श्रृंगार मूलक प्रेम की अन्तर्धारा से तीव्र राष्ट्र प्रेम की संवेदना प्रकट हुई है।
प्रथम अंक
गुप्त साम्राज्य में आंतरिक विद्रोह दिखाया गया हैं।
कुमारगुप्त के शासन में गुप्त साम्राज्य की शांति व्यवस्था अशांति में परिवर्तित होती दिखाया गया है।
द्वितीय अंक
स्कन्दगुप्त को अपने लक्ष्य के लिए प्रयासरत है।
पर उनके समक्ष दो समस्या है जिसमें एक गृह-संघर्ष के रूप में है तथा दूसरी आक्रमण से देश रक्षा।
स्कन्दगुप्त प्रथम अपनी माता की रक्षा करता है।
तदुपरांत अपनी सारी सैन्य शक्ति को एकजुट कर के राज्य को प्राप्त करने में सफल सिद्ध होता है।
तृतीय अंक
स्कन्दगुप्त का भटार्क, प्रपंच बुद्धि और अनंत देवी के षड़यंत्र का सामना करना।
स्कन्दगुप्त और मातृगुप्त द्वारा देवसेना की रक्षा करना।
पश्चिमोत्तर की सीमाओं से दुश्मनों का आक्रमण।
भटार्क का धोखा देना, युद्धभूमि में दुश्मनों से मिल जाना।
भटार्क को ततपश्चात क्षमा दान देना।
धोखेबाज भटार्क ने स्कन्दगुप्त की सेना को कुंभा पार करते समय विपत्ति में डाल देना।
चतुर्थ अंक
विपरीत परिस्थितियों और षडयंत्रो में अकेला जूझता दिखाया गया है।
पंचम अंक
भटार्क के दक्ष सैन्य संचालन के कारण विपक्ष का एक महत्वपूर्ण गढ़ टूट जाता है।
अनंतदेवी और धर्म संघों में विरोध की स्तिथि उतपन्न होती है।
पर्णदत्त के सहयोग से स्कन्दगुप्त को धनराशि की उपलब्धि, आर्यावर्त के गौरव की रक्षा, पारिवारिक शांति और स्कन्दगुप्त के सारे प्रयास सफल होते दिखाए जाते है।
सामाजिक स्तर पर सब कुछ पाकर भी नायक व्यक्तिगत जीवन में अतृप्ति की पीड़ा से त्रस्त है।
इसके साथ ही नाटक का अंत हो जाता है।