लाल पान की बेगम कहानी नारी सशक्तिकरण को केंद्र में रखकर लिखी गयी है।
इस कहानी के माध्यम से रेणु जी ने नारी के स्वाभिमान और आत्मसम्मान के चाह को जग-जाहिर किया है।
गाँव में महिलाओं के मध्य होने वाले मखौल का जीवंत चित्रण मिलता है।
पति-पत्नी के रिश्तों के मध्य खट्टी-मीठी नोंक-झोंक रूठना और पल में मान जाना।
ग्रामीण जीवन में मेलों और नाच का महत्व दिखाया गया है।
जिसे लेकर बड़े से बच्चों तक में कितना उत्साह होता है।
कहानी के पात्र
बिरजू की माँ – नायिका और एक सशक्त महिला। जो कि सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है।
जो कि पल में रूठती है और उतनी ही जल्दी ठीक भी हो जाती है।
बिरजू के पिता – एक डरपोक किस्म के इंसान जो खुद की चाह को सदैव दबा कर रखते है।
बिरजू, चम्पिया – भाई और बहन।
मखनी बुआ – जिनका कोई नहीं है।
जंगी की पुतोहू – एक मुँहजोर नवविवाहित स्त्री जो बिरजू की माँ से नहीं डरती है।
सुनरी – गाँव की एक स्त्री।
लाल पान की बेगम कहानी की समीक्षा
कहानी की शुरुआत बिरजू की माँ के गुस्से के साथ होती है।
जहाँ एक ओर बिरजू उसे शकरकंद खाने की हठ किये हुए था।
चम्पिया भी जो समान लेने गयी थी अभी तक लौटी नहीं थी और बेचारा बकरा कुकुरमाछी के कारण परेशान कर रहा था।
इनसब के कारण बिरजू की माँ गुस्से में थी।
मखनी फुआ उसी वक्त नाच देखने जाने की बात छेड़ देती है।
गुस्से में बिरजू की माँ कहती है कि –
बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया हो तब न, फुआ!
इस बात से फुआ को बुरा लगा और वहाँ से चली गयी।
पनभरनियों के बीच मखनी फुआ बिरजू की माँ की बातों का जिक्र करती है।
आठ दिन पहले ही बिरजू की माँ ने सबसे कहा है कि –
बिरजू के बप्पा ने कहा है कि बैलगाड़ी पर बिठा कर बलरामपुर का नाच दिखा लाऊँगा।
इसीलिए मखनी फुआ बिरजू की माँ से नाच देखने चलने के बारे में पूछा था।
लेकिन बिरजू की माँ ने गुस्से में जो ज़वाब दिया उस से मखनी फुआ को बुरा लगा।
चम्पिया के घर अभी तक न लौटने के कारण बेहद गुस्से से तिमतीमाति हुई चम्पिया पर क्रोधित हो रही थी।
यह सब सुनकर पास से गुजरती जंगी की बहू ने कहा –
चल दिदिया, चल ! इस मुहल्ले में लाल पान की बेग़म बस्ती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और चौपहर-रात बिजली की तरह भक्-भक् कर जलती है!
बिरजू की माँ के बारे में तीन वर्ष पहले एक कहानी गढ़ कर फैलाई गई थी कि –
चम्पिया की माँ के आँगन में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी!
चम्पिया की माँ के आँगन में नाकवाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह। …जलो, जलो! और जलो!
चम्पिया की माँ के आँगन में चाँदी-जैसे पाट सूखते देख कर जलनेवाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों को देख कर बैंगन का भुर्ता हो जाएँगी।
चम्पिया की माँ ने उसे टीशन की लड़कियों से दूर रहने को कहा।
बिरजू के बापू को कोयरिटोले में किसी ने गाड़ी नहीं दी।
तो वह मलदहियाटोली के मियाँजान की गाड़ी लेने जा रहे है यह संदेश चम्पिया के द्वारा भिजवाया।
गाड़ी न मिलने के कारण बिरजू की माँ उसके बापू से नाराज़ होकर सब काम छोड़ सोने चली जाती है।
ये सब सुनकर चम्पिया के आँखों में आँसू आ गए और एक वर्ष पहले की बातें याद आती है।
जो उसकी माँ कहा करती थी कि –
बलरामपुर के नाच के दिन मीठी रोटी बनेगी, चम्पिया छींट की साड़ी पहनेगी, बिरजू पैंट पहनेगा, बैलगाड़ी पर चढ़कर।
बिरजू का भी मन उदास हो चुका था।
उसने अपने मन में ही इमली पर रहने वाले जिनबाबा को एक बैगन कबूला।
गाछ का सबसे पहला बैंगन, जो उसने खुद रोपा था।
सर्वे के समय बिरजू के पिता को पाँच बीघा जमीन हासिल हुई उससे सभी को जलन होती है।
पर इस दौरान बाबूसाहब की धमकी भी सहनी पड़ी उसकी कोई बात नहीं करता।
यह सब चम्पिया की माँ सोचती है।
बिरजू की माँ को उस दिन की बात का बहुत गुस्सा आ रहा था।
बिरजू के पिता ने जिस दिन बैलगाड़ी से नाच दिखाने का वादा किया था।
गाँव की औरतों के मज़ाक का पात्र अब बनना पड़ेगा ऐसा बिरजू की माँ सोचने लगती है।
तभी बिरजू के पिता बैल गाड़ी लेकर आ जाते है।
बिरजू की माँ की नाराज़गी दूर हो जाती है।
बिरजू और चम्पिया भी बहुत खुश हो जाते है।
मखनी फुआ को घर की पहरेदारी करने को रख सज धज कर गाड़ी से नाच देखने चलते है।
गाड़ी में जगह होने के कारण बिरजू की माँ ने जंगी की बहू को भी साथ लेते चलने को गाड़ी रुकवाई।
जंगी की बहू, लरेंना की पत्नी और राधे की बेटी सुनरी तीनों को साथ गाड़ी में बिठा चल पड़ते है।
फिर बिरजू की माँ ने चम्पिया को बायस्कोप की गीत गाने को कहा।
चम्पिया के साथ-साथ जंगी की बहू भी धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी “चंदा की चाँदनी…”।
बिरजू की माँ के मन में जंगी की बहू के प्रति खटास खत्म हो गयी और मन-ही-मन कहने लगी।
जंगी की बहू की तारीफ़ करने लगी कि कितनी प्यारी बहु है।
सच ही तो कहा है “लाल पान की बेग़म” यह कोई बुरी बात नहीं।
वो खुद ही सोचने लगती की वो है ही लाल पान की बेग़म
अपने पहनावे लाल साड़ी की तरफ़ एक नज़र डाली और अपने चेहरे की तरफ़ भी।
बिरजू की माँ के मन में अब कोई भी लालसा शेष नहीं बची और वो सोने लगी।