ध्रुवस्वामिनी नाटक जयशंकर प्रसाद की अंतिम एवं अत्यंत महत्वपूर्ण नाट्यकृति है।
इसका प्रकाशन वर्ष 1933 ई. है।
ध्रुवस्वामिनी एक नारी प्रधान नाटक है।
इस नाटक में नाट्यवस्तु और नाट्यशिल्प को उचित रूप में विनियोजित एवं उनमें सामंजस्य परिलक्षित होता है।
प्रसाद के अन्य नाटकों के अनुरूप यह भी ऐतिहासिक नाटक ही है।
हालांकि इनमें ऐतिहासिकता को जीवित रखा गया हैं और कुछ तोड़-मरोड़ भी किया गया है।
विश्वासदत्त का देवीचंद्रगुप्तम् के अंश, नाटक के मूलाधार है।
नाटक के कथ्य को यथार्थ रूप में यथावत प्रस्तुत किया है।
अपने आप मे एकमात्र नाटक है जिसमें उपन्यासिक प्रवृति का अभाव है।
इस नाटक में संघर्ष और द्वंद्व की नाटकीयता परिलक्षित होती है।
नाटक का मंचन इतना सरल है कि बिना किसी काट छांट के किया जा सकता है।
समस्याप्रधान होने की बावजूद समस्या नाटक के वर्ग के अंतर्गत इसे नहीं रखा जाता।
वैचारिक नाटक होने के पश्चात यह नीरस नहीं है।
प्रसाद जी भारतीय संस्कृति के समर्थक थे इसलिए चन्द्रगुप्त की गरिमा बनाए रखने के लिए रामगुप्त की हत्या सामंतकुमार से करवाई।
इस तरह प्रसाद जी ने कई जगह ऐतिहासिक तथ्यों को चरित्र रक्षा के लिए या तो छोड़ दिया या मरोड़ दिया।
नाटक का उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों को पुनर्जीवित करने का नहीं बल्कि उसके भीतर छुपे सत्य को उजागर करना है।
इसे सिद्ध करने के लिए कही-कही उन्हें नाटक को अपने अनुसार घुमाना पड़ा।
नाटक के पात्र
ध्रुवस्वामिनी – रामगुप्त की पत्नी और महादेवी।
Try प्रधान चरित्र जो कि नाटक के अन्य पात्रों पर भी प्रभाव डालता है।
समस्त घटनाएं इसी से संबंधित है।
शकराज – गौण पात्र। महत्वकांक्षी, रणकुशल एवं कुटनीतिज्ञ साथ ही क्रूर भी है। जो कि रामगुप्त के राज्य को चारों ओर से घेर लेता है।
कोमा – मिहिरदेव की पालित पुत्री जो कि शकराज से प्रेम करती है।
चंद्रगुप्त – समुन्द्रगुप्त का छोटा पुत्र।
साहसी, पराक्रमी, वंश और समाज की गौरव रक्षा करने वाला।
रामगुप्त – समुन्द्रगुप्त का बड़ा पुत्र।
प्रमुख पुरूष पात्र और विलासी प्रवृति का व्यक्ति।
शिखरस्वामी – रामगुप्त का विश्वासपात्र।
गुप्तकुल का अमात्य को की धूर्त और स्वार्थी है। छल प्रपंच से परिपूर्ण व्यक्ति।
मिहिरदेव – शकराज के आचार्य कोमा के धर्म पिता। गौण पात्र।
मन्दाकिनी – चन्द्रगुप्त और रामगुप्त की बहन। साहसी और प्रगतिशील युवती है।
नारी मन की व्यथा को समझती है।
पुरोहित – धर्मशास्त्र के आचार्य।
आदर्श ब्राह्मणत्व का प्रतिनिधि चरित्र
ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा
ध्रुवस्वामिनी नाटक में तीन अंक है।
इसमें दृश्यविधान नहीं है
प्रथम अंक
शिविर के पिछले भाग का मंचन है।
जहाँ ध्रुवस्वामिनी खड्गधारिणी से बात करती हुई दिखाई देती है।
खड्गधारिणी चंद्रगुप्त की मुक्ति की बात करती है कि यदि आप राजाधिराज से उनकी मुक्ति की राह प्रशस्त कर सके तो।
धुरवस्वामिनी अपनी स्वर्ण पिंजड़े की व्यथा बयाँ करती है।
उसे कोई सम्मान प्राप्त नहीं क्योंकि उसके पति मदिरा और विलसिनियों में डूबे रहते है।
आक्रमण की सुचना को रामगुप्त अनसुना कर देता है चन्द्रगुप्त के लिए ध्रुवस्वामिनी का प्रेम उसके लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है।
शिखरस्वामी शकराज का संदेश सुनाता है कि संधि की शर्त पर उन्होंने ध्रुवस्वामिनी को अपने लिए और सामंतो की पत्नियों को अपने सैनिकों के लिए माँगता है।
रामगुप्त इसके लिए सहमत हो जाता है।
ध्रुवस्वामिनी यह सब सुनकर आत्महत्या करने जाती है तभी चंद्रगुप्त उसे बचा लेता है।
चन्द्रगुप्त तभी सारे घटनाक्रम से परिचित होता है और एक तरकीब सोचता है।
उसने स्त्री वेश में शकशिविर में जाने की बात करता है ध्रुवस्वामिनी भी साथ चलने को तैयार होती है।
ध्रुवस्वामिनी की मुक्ति के मार्ग में चन्द्रगुप्त का पहला कदम है।
यह अंक अभिनेयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पूरे अंक में शिविर का ही दृश्य विद्यमान रहता है।
मनुष्य के हृदय में देवता को हटाकर राक्षस कहाँ से घुस आता है ?
ध्रुवस्वामिनी ने रामगुप्त के लिए कहा।
इस वक्षस्थल में दो हृदय हैं क्या?
जब अंतरंग ‘हाँ’ करना चाहता है, तब ऊपरी मन ‘ना’ क्यों कहला देता है ?
ध्रुवस्वामिनी ने अपने ह्रदय के द्वंद को समझना चाह रही जो कि चंद्रगुप्त के लिए है।
वीरता जब भागती हैं, तब उसके पैरों से राजनीति छल-छंद की धूल उड़ती है।
मन्दाकिनी ने रामगुप्त की बातें सुनकर कहा।
देवी, जीवन विश्व की संपत्ति है।
प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या दुःख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं।
चन्द्रगुप्त ने ध्रुवस्वामिनी से जब वह आत्महत्या करने जाती है।
द्वितीय अंक
कथा का केंद्र शक-दुर्ग है।
मेघ-संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी बुद्धि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।
शिखरस्वामी ने रामगुप्त के लिए कहा।
शकराज संधि का परिणाम जानकर बेहद खुश होता है।
कोमा और मिहिरदेव शकराज को नारी का अपमान करने से रोकते है पर वह किसी की भी नहीं सुनता।
शकराज दोनों को अपमानित करता है।
मिहिरदेव अमंगलकारी धूमकेतु की ओर इशारा करते है और कोमा के साथ चले जाते है।
शकराज उस धूमकेतु को देखकर बेहद चिंतित होता है अनिष्ट होने से भयभीत रहता है।
ध्रुवस्वामिनी ने शकराज से एकांत में मिलने का प्रस्ताव भेजती है।
नारी वेश में चन्द्रगुप्त भी साथ जाता है।
चंद्रगुप्त और शकराज में युद्ध होता है और शकराज की मृत्यु हो जाती है।
यह अंक सक्रिय और मर्मस्पर्शी है।
प्रश्न स्वयं किसी के सामने नहीं आते।
मैं तो समझती हूँ, मनुष्य उन्हें जीवन के लिए उपयोगी समझता है।
मकड़ी की तरह लटकने के लिए अपने-आप ही जाला बुनता है।
कोमा ने शकराज से कहा।
सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं।
मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ।
पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है।
शकराज ने कोमा से कहा।
अभावमयी लघुता में मनुष्य अपने को महत्वपूर्ण दिखाने का अभिनय न करे तो क्या अच्छा नहीं है?
कोमा ने शकराज से कहा।
किन्तु राजनीति का प्रतिशोध, क्या एक नारी को कुचले बिना पूरा नहीं हो सकता ?
कोमा ने शकराज से कहा।
तृतीय अंक
शक-दुर्ग के भीतर का प्रकोष्ठ।
यह अंक समस्या को वैचारिक धरातल पर प्रस्तुत कर देता है और दोनों पक्षों को बहस की खुली छूट देकर निष्कर्ष प्रस्तुत करता है।
ध्रुवस्वामिनी शक-दुर्ग की स्वामिनी बन गयी है।
पुरोहित से ध्रुवस्वामिनी अपने अधिकारों का प्रश्न करती है और रामगुप्त से उसके रिश्ते की स्थिति पूछती है।
जिस रानी को शत्रुओं के लिए भेंट कर दी गयी हो, वह महादेवी के पद से वंचित हो जानी चाहिए।
रामगुप्त और अपनी विवाह को राक्षसी विवाह का दर्जा देती है।
पुरोहित धर्मशास्त्र देखने की बात कहता है।
कोमा शकराज के शव को लेने आती है ध्रुवस्वामिनी उसे ले जाने देती है।
किन्तु रास्ते में रामगुप्त के सामंतों ने कोमा और मिहिरदेव को शकराज के शव के साथ हत्या करवा देता है।
रामगुप्त चन्द्रगुप्त को बंदी बना लेता है।
ध्रुवस्वामिनी महादेवी और रामगुप्त की पत्नी होना अस्वीकार कर देती है।
पुरोहित भी अपना निर्णय धर्मशास्त्र के आधार पर सुनाते हैं कि ध्रुवस्वामिनी पर रामगुप्त का कोई अधिकार नहीं है।
ध्रुवस्वामिनी को भी बंदी बनाने की आदेश सुनकर चन्द्रगुप्त लौहशृंखला तोड़ डालता है।
स्वयं को शकराज के दुर्ग का स्वामी घोषित करता है रामगुप्त और शिखरस्वामी को वहाँ से जाने का आदेश देता है।
विधान की स्याही का एक बिंदु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा चढ़ा देता है।
चन्द्रगुप्त ने ध्रुवस्वामिनी के लिए कहा।
ध्रुवस्वामिनी नाटक का उद्देश्य
तत्कालीन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास।
तत्कालीन नारी समस्याओं को उठाया गया है।
नारी दशा दयनीय थी, उसे अपमानित और पददलित किया जाता था।
पुरुषों द्वारा अत्याचार किये जाते थे उन्हें गुलाम समझा जाता था।
नाटक का उद्देश्य केवल विवाह मोक्ष(तलाक) या पुनर्लग्न की समस्या का हल मात्र नहीं है।
देश का विघटन करने वाली राजनीति व्यवस्था के भ्रष्ट मुल्यों पर प्रहार किया है।
राष्ट्र एवं व्यक्ति की अस्मिता का प्रश्न उकेरा है।
नाटक की समस्याएँ
भारत में विवाह के बंधन में एक बार बंध जाने के बाद उससे निकलने का कोई विकल्प नहीं होता, चाहे कितने भी असंतुष्ट ही क्यों न हो!
पुरुष दूसरा विवाह कर सकता पर स्त्री नहीं।
पुरुष और नारी का बंधन परस्पर द्वेष व घृणा से ही नहीं टूट सकता, किन्तु पति नपुंसक, कायर और क्लीव हो तो उसका पत्नी पर कोई अधिकार नहीं रह जाता।
ऐसी स्तिथि में वह दुराचारी पति का त्याग कर सकती है।
धर्म में इसके लिए मोक्ष (तलाक) की व्यवस्था की गई है
लोग इस व्यवस्था को ही उचित समझने लगे थे।
पश्चात सभ्यता के कारण भारतीय समाज के सोच में परिवर्तन आया तलाक के रूप में लेकिन परम्परावादी लोग इसे नकारते रहे।